9 Feb 2012

हमारी सीमा यानि माया

आज चर्चा हमारी-आपकी आत्मसत्ता पर छाई इंद्रिय रूपी माया पर। आंख, नाक, कान, त्वचा व जीभ के अनुभव पर। शुरुआत कान से। देखिए, हमारे आस-पास अनेक वजहों से शब्द कंपन होते रहते हैं। हर पल। लेकिन हमारा कान उन्हीं कंपनों को पकड़ पाता है, जिनकी गति 33-40 मीटर/ सेकेंड होती है। वहीं हमारी आंख केवल सात रंगों (बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल) के बीच की प्रकाश किरणों को देख सकती है। अत्यधिक गरमी और सर्दी में तापमान का अंतर हमारी त्वचा नहीं कर पाती। अन्य जीवधारियों की छोडि़ए, अलग-अलग व्यक्तियों की जीभ भी एक से स्वाद का अनुभव नहीं करती। किसी को कड़वा प्रिय है तो किसी को मीठा। यही बात नाक के साथ भी लागू होती है।
विज्ञान इसे हमारी सीमा बताता है...। लेकिन साथ में हमारी अनूकुलन की क्षमता को भी विज्ञान नहीं नकारता। अद्वैत वेदांत के आइने में देखा जाए तो विज्ञान आज जिसे हमारी सीमा बता रहा है वह और कुछ नहीं, 'माया' है। माया यानि भ्रम की जननी। वहीं अनुकूलन माया के बनाए आभासी संसार को तोडऩा होगा। वाह्य की जगह अपने अंदर झांककर...।

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