31 Jan 2012

हर कण प्रेमी

आज चर्चा पृथ्वी के प्रेम की...। छोटे-बड़ी सभी वस्तुओं के आपसी लगाव की...। यानि इनके गुरुत्वाकर्षण शक्ति की...। शुरुआत ब्रिटिश खगोलविद Isaac Newton (1642 – 1727AD) से...। इन्होंने बताया कि पृथ्वी ही नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण दूसरे कण को अपनी ओर खींचता रहता है। इसका एक भी फार्मूला दिया इन्होंने...। इसके मुताबिक दो कणों के बीच कार्य करने वाला आकर्षण बल उन कणों के द्रव्यमान के गुणनफल का समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। कणों के बीच कार्य करने वाले आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण व उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है। यही न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम कहते हैं।
लेकिन भारतीय मनीषी भास्कराचार्य द्वितीय को देखिए। न्यूटन से करीब 500 साल पहले इन्होंने अपने ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि में साफ बताया कि पृथ्वी में ही नहीं, गुरुवाकर्षण शक्ति सभी भारी वस्तुओं में होती है....। इनका श्लोक पढि़ए...। इसका लब्बोलुबाब है, 'पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इस शक्ति के सहारे पृथ्वी आकाश की तरफ से भारी वस्तुओं को अपनी तरफ खींचती है। वस्तुएं इसकी तरफ गिरती दिखतीं है। इसी तरह की शक्ति उस वस्तु में भी होती है, जो पृथ्वी पर गिरती है...।' यही नहीं, इनसे पहले संत कणाद ने बताया था कि यह पृथ्वी की शक्ति है, जो सब प्रकार के अणुओं को अपनी ओर खींचती है...।

30 Jan 2012

सूर्य व धरती का संबंध

आज बात करते हैं सूर्य और धरती व अन्य ग्रहों के संबंध की। सबसे पहले हमारी जुबान पर नाम आता है पोलैंड के खगोल शास्त्री कोपरनिकस का। 1543 ईसवी में प्रकाशित उसकी पुस्तक 'De reveloutionibus Orbium Coelestium' का। माना गया कि सबसे पहले कोपरनिकस ने बताया कि सूर्य केंद्र में है, जबकि पृथ्वी समेत अन्य ग्रह इसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
लेकिन हम यहां वैदिक और उत्तर वैदिक काल के तीन श्लोक का जिक्र करेंगे। इनमें कोपरनिकस जैसी स्पष्टता तो नहीं, फिर भी उस जैसी आवाज सुनी जा सकती है....।
नैवास्तमनमर्कस्य नोयदः सर्वदा सतः।
उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः।।
सूर्य का न तो उदय है और न ही अस्त। यह हमेशा अपने स्थान पर बना रहता है। दोनों शब्द (उदय व अस्त) महज उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति का अर्थ देते हैं।
दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः।
(सूर्य) अपनी किरणों द्वारा चारों तरफ से पृथ्वी को पकड़े रहता है।
मित्रो दाधार पृथिवीमुतद्याम्। मित्रः कृष्टीः।
सूर्य पृथ्वी और आकाशीय क्षेत्र को बांधे रहता है। सूर्य में आकर्षण शक्ति है।

29 Jan 2012

धरती की लट्टुई गति

आज चर्चा धरती की लट्टुई गति पर...। यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है...। पश्चिम से पूर्व की ओर 23.5 अंश झुककर...।  23 घंटे 56 मिनट और 4 .091 सेकंड में...। माना जाता है कि फ्रांसीसी भौतिक विद Jean Bernard Leon Foucault ने 'Foucault पेंडुलम' बनाया। 1851 में। इससे धरती की दैनिक गति का पता चला...।
अब जिक्र आर्यभट्ट का करुंगा। 5 वीं सदी में इन्होंने आर्यभटीय लिखा। पुस्तक के अध्याय 4 का 9 वां श्लोक देखिए....।
अनुलोमगतिनौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लड्.कायाम्।।
यानि जैसे ही एक व्यक्ति समुद्र में नाव से आगे बढ़ता है, उसे किनारे की स्थिर चीजें विपरीत दिशा में चलती दिखती हैं। इसी तरह स्थिर तारे लंका (भूमध्य रेखा) से पश्चिम की जाते दिखते हैं...।

27 Jan 2012

महाविस्फोट व एकोहं बहुस्यामि

आज चर्चा ब्रह्मांड की पैदाइश पर। इस पर अनेक मत आए। आखिरकार आज विज्ञान में यहां तक सहमति है कि शुरुआत में एक जगह पर सघन द्रव्यमान था। कुछ वजहों से इसके अंदर विस्फोट हुआ। इससे निकल अंसख्य टुकड़े इधर-उधर फैल गए। फिर अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमने के साथ इन टुकड़ों में एक-दूसरे से दूर जाने की घुड़दौड़ शुरु हो गई। घुड़दौड़ आज भी जारी है....।
विज्ञान की यह ध्वनि हमारे दर्शन में सुनी जा सकती है। आज नहीं, सदियों पहले ही...। इसके अनुसार शुरुआत में एक ही तत्व परमात्मा पिंड रुप में था...। उसमें एकोहं बहुस्यामि (मैं एक हूं बहुत हो जाउं) का विचार आया। इससे वह फट पड़ा और महाप्रकृति की रचना कर डाली। इसमें सत, रज, तम तीन गुण थे। इन्हीं से सृष्टि का निर्माण हुआ। सृष्टि के विस्तार की तरह ही 84 लाख योनियों का निरंतर विस्तार होता चला गया...। विकास की प्रक्रिया यहां भी जारी है...।

24 Jan 2012

ओमनीजेक्टिव व त्रिपुटी

आज शुरुआत Eugene Wigner से...। अमूमन ब्रह्मांड को दृश्य व बुद्धि को दृष्टा माना जाता रहा है। लेकिन इनके मुताबिक कणों व उपकणों की प्रकृति तब-तक नहीं जानी जा सकती, जब तक उसका संपर्क चेतना से नहीं होता...। यानि बगैर चेतना के संपर्क के कणों व उपकणों से निर्मित ब्रह्मांड जड़ है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि कण चेतन युक्त है तो पूरा ब्रह्मांड चैतन्य होगा। एक तरह से दृष्टा।
अब Michael Talbot की पुस्तक Philosophy Of Modern Physics का संदर्भ देखिए...। इसके मुताबिक 'हाइजेनवर्ग के सिद्धांत के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्मांड महज दृश्य है। एक ही समय में यह दृश्य भी है और दृष्टा भी।' इन्होंने एक नए शब्द 'ओमनीजेक्टिव' का प्रयोग किया। इसमें दृश्य और दृष्टा दोनों का अर्थ समाहित है।
आखिर में बात अद्वैत वेदांत की...। इस संबंध में यहां तीन पहलुओं पर चर्चा है। दृश्य-दृष्टा-दृक अर्थात ज्ञेय, ज्ञान व ज्ञाता। इन्हें त्रिपुटी कहा गया है। जैसे ही सत्य का अहसास होता है, दृश्य और दृष्टा दृक में विलीन में हो जाते हैं। इनमें कोई भेद नहीं रह जाता। यहां यह साफ कर दूं कि इसे समझना आसान नहीं। इस पर अलग से चर्चा होगी। यहां हमारा मकसद ओमनीजेक्टिव व त्रिपुटी सिद्धांत में समता दिखना है। एक आधुनिक विज्ञान की देन है, जबकि दूसरा अद्धैत वेदांत का।

23 Jan 2012

जीवात्मा=परमात्मा

आज शुरुआत एक सवाल से, कि चेतन की प्रकृति क्या है...? यहां सदर्भ वैज्ञानिक Schrodinger और जे. सी. बोस का दूंगा। Schrodinger को इसका जवाब उपनिषदों में मिला...। इनके मुताबिक अविभाजित अनंत चेतना का ब्रह्मांड के सभी पदार्थों में वास है। जीवात्मा=परमात्मा का समीकरण सभी समस्याओं का समाधान दे सकता है...। जबकि जे.सी. बोस ने प्रमाणित किया कि पौधे की हर पत्ती में चेतना वास करती है। किसी बाहरी उद्दीपन से यह प्रतिक्रिया भी देती है। इस आधार पर क्या यह माना जाए कि एक पौधे पर अधिकाधिक चेतना वास करती है, या यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि एक ही चेतना पूरे वृक्ष में है? Schrodinger बताते हैं कि चेतना सिर्फ एक है...।
एक सवाल और...। मानव शरीर में चेतना का वास कहां है...? न्यूरोफिजियोलाॅजी फिलहाल इसका सर्वमान्य जवाब नहीं दे सकी है। मशहूर न्यूरोफिजियोलाॅजिस्ट W. Penfield ने 20 वर्ष तक इस विषय पर काम किया...। आखिरकार इन्होंने बताया कि चेतना सिर्फ दिमाग में वास नहीं करती। आगे नोबल पुरस्कार विजेता George Wald ने इस अवधारणा को मजबूत किया। इनके मुताबिक चेतना सिर तक ही सीमित नहीं। इसका वास पूरे शरीर में होता है...। वहीं John Eccles ने बताया कि बेशक चेतना मानव मस्तिष्क के माध्यम से काम करती है, लेकिन यह इससे बढ़कर है...।
अंत भारतीय दर्शन के इस सिद्धांत से कि यह वही चेतना है जो सर्वत्र मौजूद है। लघुतम कणों से लेकर असीम ब्रह्म तक में...। फिर कहूंगा कि आज विज्ञान में जड़-चेतन का फर्क धूमिल होता जा रहा है...। लगातार...। दोनों एक-दूसरे में गुंथे प्रतीत होते हैं।

22 Jan 2012

तांडव नृत्य व क्वांटम सिद्धांत

आज चर्चा भगवान शिव के तांडव नृत्य की....। सृष्टि के विनाश और पुनः निर्माण का द्योतक...। आधुनिक क्वांटम सिद्धांत पर नटराज की तुलना वैज्ञानिक Fritzof Capra की नजर से देखिए...। 1975 में Tao of Physics नामक पुस्तक लिखी इन्होंने...। उनके मुताबिक आधुनिक भौतिकी में पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं है। एक-दूसरे का विनाश व रचना करते वह सतत नृत्य में रत है...। दाएं हाथ का डमरू नए परमाणु की उत्पत्ति व बाएं हाथ की मशाल पुराने परमाणुओं के विनाश की कहानी बताता है। अभय मुद्रा में भगवान का दूसरा दांया हाथ हमारी सुरक्षा जबकि वरद मुद्रा में उठा दूसरा बांया हाथ हमारी जरुरतों की पूर्ति सुनिश्चित करता है...। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के नृत्य का प्रतीक है...। लिहाजा कोई आश्चर्य नहीं नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन (सी ई आर एन) में नटराज की प्रतिमा की स्थापना पर...।

19 Jan 2012

महर्षि रमण व कार्ल गुस्ताव जुंग

आज बात स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जुंग की। इन्होंने पॉल ब्रान्टन की पुस्तक 'इन सर्च ऑफ सीक्रेट इंडिया' पढ़ी। इसमें इन्हें भारतीय संत महर्षि रमण व उनकी आध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि का पता चला। जिज्ञासु जुंग की इनसे मिलने की इच्छा हुई। संयोगवश 1938 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत बुलाया। इस प्रस्ताव को वह अस्वीकार न कर सके और सर्द मौसम में भारत आ गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने सरकारी काम निपटाया, फिर निकल पड़े तिरुवन्नमलाई के अरूणाचलम पर्वत पर की तरफ। महर्षि रमण का यहीं निवास था। आश्रम में यह अंग्रजी के जानकार एक संत अन्नामलाई स्वामी से मिले। तय हुआ कि महर्षि रमण का दर्शन शाम में होगा।
कार्ल गुस्ताव जुंग (1875-1961)ः स्विस मनोचिकित्सक, प्रभावशाली विचारक व विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक। जुंग को पहला ऐसा मनोविज्ञानी माना जाता है जिनके अनुसार मानव मन स्वभाव से धार्मिक है। इसका गहराई तक परीक्षण भी किया जा सकता है। फ्रायड की तरह इनका मानना था कि चेतन व्यवहार के पीछे अदृश्य अचेतन का हाथ रहता है। लेकिन कामवासना और उसके दमन के इर्द-गिर्द सिमटे फ्रायड से उनका मतभेद रहा। क्योंकि जुंग मानते थे कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार भी कुछ आध्यात्मिक आयाम होते हैं।
शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से जुंग की मुलाकात हुई। पहली मुलाकात में ही जुंग को इस योगी से अपनत्व महसूस हुआ। हालांकि उनके मन में यह शंका थी कि क्या महर्षि उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएंगे। जुंग सोच ही रहे थे कि मुस्कराते हुए महर्षि रमण ने कहा, प्रचीन भारतीय ऋषियों की आध्यात्म विद्या पूरी तरह वैज्ञानिक है। आपकी शब्दावली में इसे वैज्ञानिक आध्यात्म कहना सही रहेगा। देखा जाए तो इसके पांच मूल तत्व हैं, 1. जिज्ञासा, विज्ञान इसे शोध समस्या कहता है, 2. प्रकृति एवं स्थिति के अनुरुप साधना का चयन अर्थात अनुसंधान, 3. शरीर की विकारहीन प्रयोगशाला में किए जाने वाले त्रुटिहीन प्रयोग। विज्ञान इसे नियंत्रित स्थिति में की जाने वाली वह क्रिया, प्रयोग मानता है, जिसका सतत सर्वेक्षण जरुरी होता है, 4. किए जा रहे प्रयोग का निश्चित क्रम से परीक्षण एवं सतत आकलन, 5. इन सबके परिणाम में सम्यक निष्कर्ष। सहज भाव से महर्षि ने अपनी बात पूरी की।
महर्षि फिर आसन छोड़कर टहलने लगे।
टहलते-टहलते उन्होंने बताया, मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी कि मैं कौन हूं? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया। इसी अरुणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते रहे। इन प्रयोगों के परिणाम रहा कि अपरिष्कृत अचेतन लगातार परिष्कृत होता गया। चेतना की नई-नई परतें खुलती गईं। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। अहं का आत्मा में स्थानान्तरण मनुष्य को भगवान में रुपान्तरित कर दिया। बात सुनते-सुनते जुंग ने अपना चश्मा उतारा और रूमाल से उसे साफ कर फिर लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता व गहरी संतुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसा कि उनकी दृष्टि का धुंधलका साफ सा हो गया हो। अब सब-कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक आध्यात्म का मूल तत्व उनकी समझ में आ गया था।
भारत से लौटने के बाद येले विश्वविद्यालय में जुंग व्याख्यान दिया। इसका विषय था मनोविज्ञान और धर्म। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। बाद के वर्षों में उन्होंने श्री रमण एंड हिज मैसेज टू माडर्न मैन की प्रस्तावना में लिखा कि श्री रमण भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह आध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाश स्तंभ हैं और साथ ही कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें उस पवित्रतम भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक आध्यात्म के मूलमंत्र का संदेश दे रहा है।

17 Jan 2012

"सर्वम् खलु, इदम् ब्रह्म"

 आज हम बात तीन पाश्चात्य वैज्ञानिकों की करेंगे। नोबेल पुरस्कार विजेता Louise de Broglie Of Paris, Schrodinger, Max Born और Rechord Feynmann की।  Louise de Broglie Of Paris के मुताबिक उप कण तरंग व कण दोनों की तरह व्यवहार करते हैं...। इन्होंने इसे "Wavicles" कहा। Schrodinger ने उपकण के दोहरे व्यवहार की व्याख्या करने वाला एक फार्मूला दिया। बाद में Max Born ने सिद्ध किया कि Wavicles संभाव्य तरंगे हैं। यानि सटीक स्थिति की जगह हम इनके बारे में सिर्फ संभावनाएं जाहिर कर सकते हैं। आगे  Rechord Feynmann ने बताया कि सीधी नहीं, इलेक्टान की चाल अरेखिक होती है। अगर कोई इनकी गति का निरीक्षण करता है तो यह सजीव जैसे दिखते हैं...। कभी एक दिशा में जाते हुए तो कभी दूसरी दिशा में जाते हुए, कभी तरंग की तरह तो कभी कण की तरह।
इनको बताने का हमारा मकसद है कि विज्ञान पहले जिसे जड़ समझता था, आज चेतन मानने को तैयार दिखता है। यानि इसमें भी छान्दोग्य उपनिषद् की "सर्वम् खलु, इदम् ब्रह्म" की ध्वनि गूंजती सुनी जा सकती है....। जरुरत संवेदित होने की है...।
क्या कहेंगे आप...????

10 Jan 2012

आदि शक्ति व सुप्रीम एनर्जी

सप्तशती में वर्णित है कि सृष्टि का निर्माण आदिशक्ति से हुआ है। एक कथा भी है इसकी...। एक बार देव-असुर संग्राम हुआ...। युद्ध में देवता पराजित हुए...। इसके बाद उन्होंने आदिशक्ति (आदि=मूल, शक्ति=ऊर्जा) की पूजा की...। इससे प्रसन्न होकर मां देवी ने अपने अंदर से बहुत सारी शक्तियां उत्पन्न की और दानवों को परास्त किया...। दानवराज बोला, आपके पास इतनी शक्ति है। कोई आश्चर्य नहीं, कि आप सर्व शक्तिशाली हैं...। मां आदिशक्ति ने उसे जवाब दिया, यह सब मेरी शक्तियां हैं...। इसके बाद सारी शक्तियों को खुद में विलीन कर मां वहां से चली गईं।
पुस्तक में यह वर्णन कहानी के फार्म में है। यहां इसका वैज्ञानिक निहितार्थ नहीं बताया गया है। आइए इसे वैज्ञानिक सिद्धांत पर परखते हैं। आदि शक्ति यानि असीम ऊर्जा का स्रोत। इसी से महाविस्फोट हुआ। 12-14 अरब वर्ष पहले। ब्रह्मांड बना, लगातार विस्तार होता हुआ। आज तक। देश-काल भी तभी अस्तित्व में आया।
एक बात और। पुराणों में शक्ति की व्याख्या नहीं है। अवर्णनीय भर कहा गया इन्हें...। लेकिन आज अगर हम व्याख्या करना चाहें, तो इसके सबसे उपयुक्त हाइजेनवर्ग होंगे। जैसा कि पहले भी हमने बताया है कि शुरुआत में विज्ञान पदार्थ और ऊर्जा को भिन्न मानता था। लेकिन आंइस्टीन व हाइजेनबर्ग ने इसे झुठलाया। आइंस्टीन ने पदार्थ को ऊर्जा में रूपांतरित किया तो हाइजेनबर्ग ने बताया कि परमाणु के नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इलेक्ट्रान की स्थिति शुद्धता से नहीं जांची जा सकती। इनकी अनुभूति दृष्टा या आब्जर्वर व उसके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर निर्भर करती है...।
अब बताइए, सुप्रीम एनर्जी को अवर्णनीय कहने का पौराणिक कथन वैज्ञानिक था या नहीं??

8 Jan 2012

इंद्रधनुष

अठारहवीं सदी में खोजे गए स्पेक्टम के वैज्ञानिक तथ्य का वर्णन वेदों में काव्यात्मक तरीके से किया गया है कि सूर्य के एकचक्रीय रथ को सात रंगों के घोड़े चलाते हैं। यही नहीं, सर्य की किरणों के हानिकारक प्रभाव पर भी चर्चा की गई है। ऋग्वेद में इन्हें पुरुसाद कहा गया है। जिसका अर्थ ऐसी किरणों से है जो व्यक्ति को खा जाती हैं और इनसे सारा संसार भयभीत रहता है।

प्रकाश की चाल और हम

भौतिक विज्ञान 19 वीं सदी में प्रकाश की चाल की गणना करता है। अमेरिकी भौतिकविदों (Michelson and Morley) ने बताया कि यह 30,00,00,000 मीटर/ सेकेंड (1,86,000 मील/ सेकेंड या 3,00,000 किमी/ सेकेंड) होती है। जहां तक हिंदू धर्म शास्त्रों का सवाल है, तो 14 वीं शदी के दक्षिण भारतीय टीकाकार सायण या सयानाचार्य ने इस पर टिप्पणी की है। आप ताज्जुब करेंगे कि ऋग्वेद के आधार पर की गई गणना आधुनिक परिकल्पना के काफी नजदीक है।

शून्य और हम

यह तय नहीं कि शून्य का प्रयोग सबसे पहले कब हुआ। हां, पिंगल के छंद सूत्र में इसका वर्णन आता है। यह भी कहा गया है कि दूसरी सदी ईसा पूर्व वैदिक संत गुत्समद ने सबसे पहले इसका प्रयोग किया। फिर वेदों की ऋचाओं की संख्या 10,580 है, शब्द 1,53,820 और अक्षर 4,32,000 हैं। यानि विवरण अति सूक्ष्म है। इससे लगता है कि सभ्यता की शुरुआत में ही शून्य का ज्ञान मानव को था।

जीवाणु और बीमारी

1969 में पाश्चात्य विद्वान जेजी हॉलवेल, एमआरएस ने कॉलेज ऑफ फिजिशियन, लंदन की एक सभा में लिखित रिपोर्ट दाखिल की थी कि भारत के चिकित्सकों के अनुसार असंख्य अदृश्य जीवाणुओं के कारण बीमारियां फैलती हैं।

अग्नि व एनर्जी

दोनों श्लोक ऋग्वेद से लिए गए हैं। वैदिक सूत्रों के अनुसार अथर्वा पहले ऋषि थे, जिन्होंने तालाब के जल के मंथन से उर्जा पैदा करने के विधि बताई थी। वेदोत्तर ग्रंथों और शिल्प शास्त्रों में हवा, रत्न, आकाश, सूर्य आदि स्रोतों से विद्युत की प्राप्ति और उसके उपयोग से यंत्र संचालन का उल्लेख मिलता है। लेकिन दिक्कत यह रही कि ग्रंथ सूत्रात्मक भाषा में हैं, जिन्हें आसानी से नहीं समझ सकता और इसमें वर्णित तकनीक से बने यंत्र पुरातत्व विभाग को नहीं मिले। इससे बीच की कडि़यां टूट गई और इस बारे में संदेह हमेशा बना रहा।

6 Jan 2012

वैमानिकी और हम

उत्तर वैदिक काल के मनीषी महर्षि भरद्वाज को उद्धृत कर रहा हूं। अपने ग्रंथ में इन्होंने विमान में प्रयुक्त होने वाली धातुओं के निर्माण की विधि का वर्णन किया है...। साथ ही एक अन्य प्रसंग का भी वर्णन करुंगा....। राइट बंधुओं से तो आप सब वाकिफ होंगे...। हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि इन्होंने स्वनिर्मित विमान से पहली हवाई यात्रा की...। 1905 ईसवी में 120 फिट उचांई तक सैर भी किया...। आविष्कारक बताया जाता है इन्हें विमान का...। लेकिन हममें से कितनों का पता है शिवकर बापूजी तलपड़े के बारे में..। मुंबई के मशहूर संस्कृत विद्वान थे तलपड़े...। 1864 में इनका जन्म हुआ था...। राइट बंधुओं से आठ साल पहले, 1895 में इन्होंने एक विमान बनाया...। वैदिक तकनीक पर...। मरुताक्षी नाम दिया इसका...। मुंबई के चैपाटी समुद्र तट पर मानव रहित विमान उड़ाया भी...। 1500 फीट की उंचाई तक...। महशूर जज व राष्टवादी महादेव गोविंद रानाडे, बड़ोदरा के महाराज शिवाजी राव गायकवाड़ के साथ भारी दर्शकों के बीच....। लेकिन दुर्भाग्य से वह वहीं क्रैश हो गया....।
क्या कहेंगे आप विमान के प्रथम भारतीय आविष्कारक पर...????

हर कण चेतन!

हमारी संस्कृति आत्म और अन्य में भेद नहीं करती। हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि पेड़-पौधों के साथ विष्व का हर कण चेतन है, जीवन है सबमें। यहां कुछ भी मृत नहीं। हां, नंगी आखों से ऐसा नहीं दिखता तो इसलिए कि सभी कर्मानुसार चेतन की अलग-अलग अवस्थाओं में पड़े हैं। प्रारब्ध सबके साथ जुड़ा है। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस ने सिद्ध भी किया कि वनस्पतियों के अंदर प्राण चेतना है। धार्मिक परिवेश में पले-बढ़े इस भारतीय वैज्ञानिक का प्रकृति से गहरा लगाव था। बचपन से इनकी मां कहती थी रात को पेड़-पौधों को मत सताओ, वह भी सोते हैं। मां की यह सीख इनके जेहन में घर कर गई। बाद में आपने रेडियो तरंगों का पता लगाने के लिए "कोहरर" नामक यंत्र बनाया। इसके आधार पर इन्होंने पेड़-पौधों के अध्ययन के दूसरा यंत्र बनाया और भारतीय परंपराओं में छिपे विज्ञान को उजागर किया।

अंतिम सत्य

शुरुआत वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स के इस कथन से, ‘....भौतिक विज्ञान के इलेक्ट्रान, प्रोटान, फोटान वैसे ही हैं, जैसे किसी बालक के पास बीज गणित के क, ख, ग। आज हो यह रहा है कि बिना यह जाने कि यह क्या है, इनसे व्यवहार कर हम आविष्कार करने में सक्षम हुए हैं...।‘
आइए, इस पर विस्तार से बात करते हैं...। 18 वीं सदी के मध्य तक परमाणु अविभाज्य माना गया। बाद में परमाणु का नाभिक टूटा...। इससे प्रोटान, इलेक्ट्रान व न्यूट्रान निकले...। आगे आइंस्टीन ने बताया कि प्रकाश फोटोन नामक कणों का प्रवाह है....। इसी प्रक्रिया में 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक परमाणु के अंदर मेसोन, पायोन न्यूयॉन, हाइपरान, न्यूट्रीनो आदि करीब 200 सूक्ष्म कणों का पता चला....। यहां तक तो ठीक रहा...। लेकिन जब कणों के गुण की बात हुई तो एक बड़ी बाधा आई....। इसका ठोस समाधान आज तक नहीं हो पाया...।
आपको बताएं कि इलेक्ट्रॉन की आन्तरिक रचना जानने के लिए हमें इलेक्ट्रॉन की गति तथा दिशा जाननी होगी। उसकी दिशा जानने के लिए गामा किरण का प्रयोग होगा। पर इलेक्ट्रान, प्रकाश के फोटोन से टकराकर अपना रूप बदल देता है। जबकि गामा किरण से टकराने पर भिन्न रूप में दिखता है। वर्नर हीजनबर्ग ने इसको अनिश्चितता का सिद्धान्त कहा। इसके मुताबिक इलेक्ट्रान कोई वस्तु नहीं, इसकी अन्तरिक रचना जानना कठिन है। तब प्रश्न उठा कि इसे जानने का माध्यम क्या होगा? इसका जवाब खोजते समय ध्यान गया कि मूल तत्व कण है या तरंग, यह हम नहीं जानते। परन्तु कभी यह एक प्रवाह के रूप में व्यवहार करता है, तो कभी यह कण या तरंग के रूप में भासित होता है। इस पर कहा गया कि कण या तरंग रूप का अनुभव उस प्रक्रिया पर निर्भर है जिसका उपयोग जानने के लिए किया जाता है। यानि इनकी अनुभूति दृष्टा या आब्जर्वर व उसके द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर निर्भर करती है...।

अब छंदोग्य उपनिषद के उद्दालक-श्वेतकेतु संवाद का जिक्र करुंगा...। प्रसंग इस तरह है...। श्वेतकेतु ने अपने पिता उद्दालक से आत्मा संबंधी एक सवाल किया...। इस पर उद्दालक ने कहा, 'एक बीज लाओ...।' जंगल से बीज लाकर श्वेतकेतु ने उनके सामने रख दिया...। पिता ने कहा, 'इस बीज को तोड़ो...।' श्वेतकेतु ने आज्ञा का अनुसरण किया। अब, उद्दालक ने श्वेतकेतु से सवाल किया, 'इसके भीतर तुम्हे क्या दिखाई दे रहा है...?' श्वेतकेतु ने ध्यान से देखा और जवाब दिया, 'कुछ नही पिताश्री !'
इस पर उद्दालक ने समझाते हुए कहा, 'देख रहे हो पुत्र, जिस विशाल, हरे-भरे घने पेड़ का जन्म जिस नन्हे से बीज से हुआ, उसके भीतर कुछ भी नही है...। जैसा तुम देखकर, स्वयं जांच कर बतला रहे हो...। इसी तरह, हमारी आत्मा, इस नन्हे बीज की तरह, परमात्मा का स्वरूप है...।'
पिता-पुत्र के इस संवाद की तुलना कीजिए आधुनिक वैज्ञानिक सफर से...। पहले पदार्थ आया...। भौतिक रुप में...। इसे तोड़ा गया...। परमाणु के स्तर पर गए...। फिर प्रोटान, न्यूटान, इलेक्टान की खोज हुई...। और आगे बढ़े तो मेसोन, पायोन न्यूयॉन, हाइपरान, न्यूट्रीनो आदि करीब 200 सूक्ष्म कणों का पता चला....।
दोस्तों, विज्ञान का सफर आज भी जारी है...। नहीं पहुंच सका है उद्दालक के आखिरी जवाब तक..., कि जो नहीं दिख रहा, वही सब-कुछ है...। परमात्मा का स्वरुप...।

हृदय की गति और रक्त परिसंचरण

आप ब्रिटिश फिजिशियन William Harvey को जानते होंगे...। इन्होंने 1628 में नीदरलैंड से एक किताब प्रकाशित की। इसमें हृदय की गति और रक्त परिसंचरण का विस्तार से वर्णन था। इस लिहाज से इन्हें इसका आविष्कारक माना गया...। लेकिन संस्कृत ग्रंथों को भी देखिए। पढि़ए सुश्रुत व चरक को। जिन्होंने इसका वर्णन बहुत पहले किया था। न सिर्फ हृदय के अस्तित्व का, बल्कि रक्त के परिसंचरण का भी....।

अर्जुन की छाल

28 जून 2003 को Wolfson Institute के Dr. N.J.Wald व Dr. M.R.Law की ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में थिसिस प्रकाशित हुई थी...। इसमें पाॅलीपिल (Palypill) नामक एक टेबलेट हार्ट अटैक के लिए उपयुक्त बताई गई। हालांकि अभी यह दवा अभी भी निर्मित होने के चरण में है, लेकिन इस क्षेत्र के जानकारों ने इसका स्वागत किया है। आपको हैरत होगी कि इस दवा की बहुत सारी खूबियां अर्जुन की छाल में मौजूद हैं।

5 Jan 2012

यज्ञ का विज्ञान

03 दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर एक किताब पढ़ते समय अग्रेंजी समाचार पत्र "द हिंदू" की एक स्टोरी पर नजर पड़ी...। आपको भी सुनाता हूं...।
....जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव होने के थोड़ी देर बाद अध्यापक एसएल कुशवाहा ने अपने घर में अग्निहोत्र यज्ञ करना शुरु कर दिया। इसके करीब बीस मिनट बाद गैस का असर उसके घर पर खत्म हो गया और उनकी जिंदगी बच गई....।

शल्य चिकित्सा और हम

भारतीय शल्य चिकित्सा का एक विवरण मद्रास गजेट (1793) में आया है...। इसके मुताबिक अग्रेजों की सहायता करने के नाराज टीपू सुल्तान ने 1793 में मराठा केवशजी सहित चार सैनिकों की नाक काट दी। ब्रिटिश कमांडिग अधिकारी इन्हें एक वैद्य के पास ले गया। वैद्य ने सर्जरी कर इनकी नाक ठीक की। 1794 में यह स्टोरी लंदन की जेंटलमेन मैगजीन में भी प्रकाशित हुई। इससे प्रेरित होकर ब्रिटिश सर्जन J.C. Carpue ने दो भारतीयों की सर्जरी की। बाद में यही काम जर्मन सर्जन Greafe ने भी किया।
कहने का मतलब यह कि भारतीय शल्य चिकित्सा पद्धति मराठा प्रदेश से यूरोप पहुंची। फिर 200 साल बाद प्लास्टिक सर्जरी के रूप में इसका यूरोप से आयात किया गया। जबकि हमारे यहां यह बहुत पहले से ही विकसित थी। ईसा पूर्व में ही। सुश्रुत संहिता में नाक, ओठ व कान की सर्जरी का विस्तार से वर्णन है।

चंद्र ग्रहण और हम

आप सभी ने शनिवार को साल का आखिरी चंद्र ग्रहण देखा होगा। यानि आपका ऐसी खगोलीय घटना से साक्षात हुआ होगा जिसमें चंद्रमा और सूर्य के बीच में पृथ्वी आ जाती है। वहीं सूर्य ग्रहण के दौरान सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाता है। इतिहास की बात की जाए तो सभी प्राचीन सभ्यताओं को ग्रहण (सूर्यग्रहण व चंद्रग्रहण) आकर्षित करता रहा है। करीब 2000 ईसा पूर्व में मेसोपोटामिया, करीब 1300 ईसा पूर्व में चीन व करीब 700 ईसा पूर्व में बेबीलोन से ग्रहण की जानकारी मिलती है। लेकिन यहां तक सारा कुछ जानकारी के स्तर तक ही सीमित था। इससे आगे जाते हुए भारतीय मनीषी आर्यभट्ट ने ग्रहण लगने की वजह का पता लगाकर इसकी व्याख्या भी की।
पश्चिमी जगत की बात की जाए तो 18 वीं शदी की शुरुआत में इग्लैंड के Halley ने इस पर शोध किया। इन्होंने ग्रहण के पहले मैप का आकलन किया...

मिट्टी और मकान

मकान बनाने के लिए मिट्टी की क्वालिटी जाननी जरूरी होती है। 5 वीं सदी ईसा पूर्व के कई संस्कृत ग्रंथों में इसका विस्तार से वर्णन है। आपको हैरत हो सकती है कि एक तकनीक का आज भी धड़ल्ले से प्रयोग होता है। इसके मुताबिक पहले जमीन में गहरा गड्ढा खोदा जाता है। फिर इससे निकली मिट्टी से दुबारा गड्ढ़ा भरा जाता है। अगर गड्ढा भरने के बाद भी मिट्टी बची रहती है तो पता चलता है कि संबंधित जमीन मजबूत है और यहां मकान बनाना उपयुक्त रहेगा।

जब इंसान ने महसूस किया गॉड पार्टिकल

मशहूर भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने आंइस्टीन के साथ मिलकर एक फार्मूला पेश किया, जिससे खास तरह के कणों का गुण पता चलता है। ऐसे कण बोसोन कहलाते हैं। दरअसल ब्रह्मांड की हर वस्तु तारा, ग्रह, उपग्रह व जीव जगत पदार्थ या मैटर से बना है। मैटर का निर्माण अणु-परमाणु से हुआ है। जबकि मास या द्रव्यमान वह भौतिक गुण है, जिनसे इन कणों को ठोस रुप मिलता है। अगर मास नहीं है तो कण रोशनी की रफ्तार से भगेगा, दूसरे कणों के साथ मिलकर संघनित होने की संभावना नहीं बनती। यही मास जब ग्रेविटी से गुजरता है तो भार कहा जाता है। लेकिन भार मास नहीं होता, क्योंकि ग्रेविटी कम या ज्यादा होने पर वह बदल जाता है। वहीं मास एक जैसा रहता है।
कणों के सूक्ष्मतम स्तर तक पहुंचने के क्रम में वैज्ञानिकों को यह पता नहीं चल पाया कि मास कहां से आता है। फिजिक्स में जब इन तमाम कणों को एक सिस्टम में रखने की कोशिश की गई स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ पार्टिकल्स तो एक गैप दिखा। 1965 में पीटर हिग्स ने हिग्स बोसोन या गॉड पार्टिकल का आइडिया पेश किया। इस सिद्धांत में बोसोन ऐसा मूल कण था, जिसका एक क्षेत्र था और यूनिवर्स में इसकी हर जगह मौजूदगी थी। जब इस फील्ड से दूसरा कोई कण गुजरता तो उसे रुकावट का सामना करना पड़ता। लेकिन इस सिद्धांत का प्रूव करने के लिए प्रायोगिक सबूत की जरुरत थी।
इसमें असल दिक्कत बोसोन की रोशनी जैसी स्पीड आ रही थी। वजह यह कि उसे देखने के लिए इतनी उर्जा की जरुरत थी, जितनी यूनिवर्स के जन्म पर रही हो। इसी के लिए जेनेवा में सीईआएन यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर फिजिक्स 10 अरब डालर की लागत से 27 किमी लंबी सुरंग बनाई गई। इसे लार्ज हैडान कॉलाइडर कहा गया। इसमें रोशनी की में दौड़ाकर प्रोटान्स की टक्कर कराई गई। इससे जो उर्जा पैदा हुई, उसमें कई कण वजूद में आए। तभी हिग्स बोसोन के पैदा होने का भी संकेत मिला। लेकिन वजूद में आते ही यह खत्म हो गया, लेकिन अपने पीछे निशान छोड़ गया है। फिलहाल यह निशान काफी नहीं। ठोस सबूतों के लिए वैज्ञानिकों को अभी कई बार इसे दुहराना होगा। फिर भी उम्मीद बंधी है।

पौराणिक आख्यान और फोटान सिद्धांत

आइए पौराणिक आख्यानों और फोटान सिद्धांत की तुलना की जाए। भगवान सूर्य, इनका सात रंग के सात घोड़ों का रथ, लगाम के तौर पर सांप...। इसकी जानकारी तो आपको होगी ही...। बात सर्प की करते हैं...। देखा जाए तो बनावट में इसका पिछला हिस्सा पतला और मुख चैड़ा होता है...। इसके फण पर मणि होती है और चाल तरंग जैसी होती है...। वहीं आधुनिक विज्ञान प्रकाश को फोटान नामक कणों का प्रवाह मानता है...। इसका न द्रव्यमान होता है न भार...। सारे मौलिक कणों की तरह इनमें भी तरंग व कण दोनों की प्रवृत्ति होती है...। इसका पिछला सिरा पतला और आगे धीरे-धारे चैड़ा होता जाता है। संस्कृत ग्रंथो में प्रकाश किरणों को प्रिथु मुखः कहा गया है...। इस तरह कहा जा सकता है कि बेशक हमारे पूर्वजों ने फोटान शब्द का उल्लेख नहीं किया...। इसका श्रेय आइंस्टीन को जाता है। लेकिन इसकी संभावना पूरी है कि वह इसके गुणों से परिचित थे...।

पृथ्वी का चुंबकीय गुण

यदि कोई चुंबक धागे से लटकाया जाता है तो यह हमेशा उत्तर व दक्षिण दिशा में रुकता है...। माना जाता है कि 1600 में विलियम गिलबर्ट ने बताया कि इसकी वजह पृथ्वी का चुंबकीय गुण है...। लेकिन हमारे पूर्वज इससे परिचित थे...। हमारे गंथ्रों में जो सिद्धांत मिलते हैं उनकी पुस्टि आधुनिक काल में ह्वेल के स्थिरांक से हुई है...।