20 Feb 2012

अहमियत धर्म व आस्था की

आज हमारी निगाह हालिया जारी तीन सर्वे रिपोर्ट पर गई। अमेरिकी परिवेश में तैयार तीनों रिपोर्ट धर्म व आस्था की अहमियत बताती हैं। भारतीय नजरिए से बेशक इसमें ज्यादा नयापन न दिखे, हमें सब-कुछ वही मिले, जिसे बचपन से बताया-सिखाया जाता रहा है। फिर भी, हमारी समझ से इन्हें पढऩा चाहिए। संभव है कि भारतीय मानस की धार्मिकता व उसके देशीय महत्व को हम ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकें...।
सर्वे नंबर-1: ...वरना दुनिया होती बदतर
टेक्सास की बेयलर युनिवर्सिटी में 1944-2010 के बीच 273 शोधों का व्यापक अध्ययन हुआ। प्रो. बायरन जानसन की देखरेख में यह कार्य दो वर्ष में पूरा हुआ। इसका लब्बोलुबाब यह कि दुनिया में बेशक अपराध व बुराईयां भरी हैं, लेकिन अगर धर्म न होता तो हालात आज से दस गुना ज्यादा बदतर होते। अध्ययन के नतीजों के अनुसार 90 फीसदी लोगों का मनना है कि ईश्वर को जबाव देना होगा, लिहाजा वह गलत काम नहीं करते। वहीं सिर्फ 8 फीसदी लोगों का मानना है कि धर्म के कारण लोग अपराधी होते हैं। प्रो. बायरन के निष्कर्ष मोर गॉड लेस क्राइम नाम से प्रकाशित हुए हैं। इसमें पिछले 67 साल की रिपोर्टों को परखने के लिए अलग-अलग पैमाने अपनाए गए। मकसद यह था कि नतीजे ज्यादा प्रामाणिक हों। इसमें द्वितीय विश्व युद्ध व उसके बाद के 150 युद्धों और दंगों के समय मानव व्यवहार में आए बदलावों को भी रेखांकित किया गया है।
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सर्वे नंबर-2: जख्म के लिए मरहम जैसा
आस्था व्यक्ति को सदमें से उबरने में मददगार होती है। वल्र्ड ट्रेड सेंटर व पेंटागन के आतंकी हमले के पीडि़तों पर किए गए सर्वे से यह साबित होता है। सर्वे युनिवर्सिटी ऑफ डेनेवर, युनिवर्सिटी ऑफ बफेला और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोधकर्ताओं ने किया। सर्वे उन लोगों पर किया गया जो हादसे से सीधे तौर पर प्रभावित थे। मसलन रोजाना जाने वाले ऐसे व्यक्ति, जो 9/11 को वहां नहीं थे, हादसे में शिकार लोगों के परिजन व उस दृश्य को देखकर आहत लोग। मनोवैज्ञानिक प्रो. डेनियल एन सिंटो की अध्यक्षता में 890 लोगों पर यह अध्ययन तीन साल तक चला। इस दौरान इन लोगों के व्यवहार, भावना व मनोदशा में आए बदलाव के साथ यह भी देखा गया कि वे किस तरह सामान्य हो रहे हैं। शोधकर्ताओं को पता चला कि जिन लोगों में धार्मिकता का स्थान था, वह हादसे से जल्द ही उबर गए।
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सर्वे नंबर-3: सवाल लंबी उम्र का
नेशनल सेंटरियन अवेयरनेस प्रोजेक्ट के तहत अमेरिकी जीवन शैली को ध्यान में रखकर एक सर्वे किया गया। समीक्षक रोबिन डाउन के मुताबिक अध्ययन का मकसद यह जानना था कि धार्मिकता का उम्र पर कुछ फर्क पड़ता है या नहीं। इसके लिए एक प्रश्नावली तैयार की गई। इसमें लोगों के खान-पान, रहन-सहन और आदतों के बारे में पूछा गया। उत्तर आश्चर्यजनक मिले। रुखा-सूखा भोजन खुशनुमा माहौल और मूड से किया जाए तो पौष्टिक संपूर्ण आहार की तुलना में सेहत के लिए कहीं बेहतर होता है। जरुरी नहीं कि पौष्टिकता के लिहाज से भोजन पर्याप्त समृद्ध हो। डाउन बताते हैं कि सीधा-सादा जीवन और जो साधन उपलब्ध है उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देना सौ साल की उम्र पार कर चुके लोगों के लिए उपयोगी साबित हुई है।
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